वो हूँ ,जिसे समझा नहीं तुमने,
मैंने माना ,जिसे माना नहीं तुमने,
तू भगवान है मेरा ,
मुझे दास भी माना नहीं तुमने,
मेरा जीवन तुझसे ये मैंने माना,
तन-मन से अपनाया,
बसाया आत्मा में तुमको मैंने
एक पल भी मुझे अपना बनाया नहीं तुमने …
स्वप्न बुने मैंने जो मात्र मेरे ही थे ,
नहीं कोई सरोकार है तेरा ,
मुझे “मानव”से निवेदिता बनाया भी तुमने,
नहीं इज़्ज़त कोई मेरी जबसे बताया है तुमने ..
टूट गए वो स्वप्न बिखर गए,
जिन्हें कभी दिखाया भी था तुमने..
जीवन मैं एक स्वाभिमान ही था मेरा,
गर्व इज़्ज़त से कमाया , था ऐसा अभिमान,
शायद अहम था जिसे मिटाया भी तुमने..
आज ना देने को बचा ना खोने को,
ना जीने को ना हँसने को ..
रो रो के जीना , सिखाया भी तुमने .. “निवेदिता”
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