हज़ारों वर्षों से जमी बर्फ़ सी ,
कठोर अवस्र्द्ध मेरा हृदय ,
मन मस्तिष्क के साथ ,
जमी हुईं सी हड्डियां भी ..
किंतु धमनियों के भीतर,
बहता ख़ून अब भी गर्म है ,
जड़ीकृत शिरा में दौड़ती ,
रवानी महसूस करा रही है ,
खोखल शरीर ,ख़ुश्क त्वचा ,
में मानो प्रकाश पुंज अब भी,
पूर्ण जीवंत – खिलने को है ।
लेकिन छाया में कहीं छिप गए,
आत्ममता में उल्लिखित,
मेरे दिल के अंदर वो भाव फिर,
उग आए हैं , बढ़ने -फूलने को हैं,
बंजर ज़मीन में वो सफ़ेद फूल ,
सूखे ठूँठ की रूँख में नन्ही क़ोंपल
मानो नई कलियाँ खिलने को हैं
बाग़ीचा फिरसे महकने को है । “निवेदिता”
Leave a comment