मैं मीरा बन तड़प रही ,
वो गोपियों संग रचाए रास,
दूर बसी क्यूँ मीरा भाए ?
जब रहते राधा के पास ;
मैं प्रेम में जोगन बनी ,
उनके मन को गोपी ही भाए ।
मैं उनका नाम रटते नहीं थकती ,
उनको मेरा नाम नहीं भाए ।
पूजूँ नित प्रातःनिशि मध्याह्न , पर कान्हा तो रहा छलियासिर्फ़ दूसरों का ही रहता ध्यान ।। “निवेदिता”..
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