जब मैं मौन हूँ तो गौण नहीं ,कहीं विस्मृत हूँ शायद
शायद, इन हवाओं में , इन फ़िज़ाओं में कहीं
कहीं ,इन फूलों में तो नहीं ? या फिर शायद हाँ
हाँ !इन फूलों में, जहाँ शब्द हार जाएँ फूल बोलते हैं
बोलते हैं श्रीमान ! ज़ुबान से नहीं रंगों से अपने
अपने महक से , सौंदर्य से मिठास से,
मीठास से रस घोलते हैं , ठग लेते हैं काले भ्रमर को
भ्रमर को आसक्त करते है , की वो उनमें खो जाये
जाये तो कहाँ जाये , लट्टु इस चर्म तक की न जाने
जाने -अनजाने ,कब शाम ढल जाए और वह,
वह ,पगला ! उन फूलों की महक में डूबा अपने प्राण खो दे ..
“निवेदिता ”
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