ज़िंदगी एक किताब है, मेरी ज़िंदगी एक खुली किताब , जिसके पन्नों पे लिखी सभी नई पुरानी बातें और यादों में खुद को संजोये बैठी हूँ ।
कल एक पुरानी पुस्तक को हाथ में लिया , धूल की एक परत देखी – साफ़ करने लगी तो जिल्द का काग़ज़ पुराना होने के वजह से गल गया था और हाथ में आगया , सोचा इसे बदल दूँ ।
तभी ,खोलते हुए कुछ पन्नों पे नज़र पड़ी ,और उस पुरानी पुस्तक की महक मुझे मोह गई और अनायास ही मुझे अपनी यादों की गोद में बिठा लिया ।
आज भी वही सोच, मेरी दिमाग़ में बिल्ली की तरह तेज़ी से भागी, वो शाम जब में लाईब्रेरी से किताब लेके निकल रही थी , तभी दूर से किसी का पुकारना, सुनिए अगर आप बुरा ना माने तो क्या इसे मैं इस हफ़्ते ले सकता हूँ? मुस्कुराहट अपने आप होठों पे आगाई थी और सिर ने ख़ुश होकर हामी भी दे दी थी ।
यादों से वापिस लौटी ही थी की धूल अभी किताबों पर दीख पड़ी ।
फिर , दूसरी पुस्तक को साफ़ करने लगी तो अनायास ही खिलखिलाने लगी , आज भी याद है की किस तरह भागते भागते मैं प्रिन्सिपल मैडम से टकराकर सारी किताबें उनके ऊपर ही गिरा दी थी , और उनसे पनिश्मेंट भी मिली थी आज भी धूप में खड़े रहने का अहसास ज़हन में है ।
पर ,आगे नज़र पड़ी उस छोटी सी स्लेट पर , एक जादुई दुनिया सी ,मेरे दिमाग़ में एक सोच बिजली की तरह कौंध गयी कि आज के परिवेश और जन संसाधनों के प्रगतिशील दौड़ में ,कहीं हम ऐसे कई पलों को खो तो नहीं रहे हैं ? क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को ऐसे पलों का अहसास होगा ?
आप सोच रहे होंगे अचानक ही ये बात कहाँ से आइ ?
जी हाँ ! अचानक ही आयी ,परन्तु ठीक आयी , वो स्लेट जैसी वस्तु ज्ञान का भंडार लिए है । वह एक नन्ही सी दुनिया है , जो मेरी बिटिया की है ।
उसे वह “किंडल ” Kindle बताती है । पूछने पे कहती है की हमारी पुस्तकों जैसी हज़ारों पुस्तक उस छोटी सी किंडल मैं आजाती है ,पॉकेट में डाल लो , ना जिल्द चढ़ाने का झंझट ना सफ़ाई करने का , अजब है । हाथ की छूवन से पन्ने बदल जाते हैं ।
काग़ज़ की किताब से इसकी प्रति भी सस्ती है । कुछ ही दिनो पहले मैंने भी एक मित्र की पुस्तक ख़रीदी “पर्सिवल” बाई राजीव चोपड़ा ।
पर वह नई पुस्तक की महक नदारद थी । तभी से सोच रही हूँ की पुस्तकों का स्वरूप किंडल ने ले ली तो कैसा होगा पुस्तक जगत , लायब्रेरीयों में बस मक्खियाँ होंगी और उन्हें म्यूज़ियम में बदल दिया जाएगा ,उनकी जगह बस ऑनलाइन स्टॉर्ज़ होंगी सब बिना भवों के जैसा , ना जगह रुकेंगी ना जिल्द फटेंगी ..??
क्या हमारी आने वाली पीढ़ी , नई और पुराने किताबों की सौंधी महक को नहीं सूंघ पाएँगे ? उन्हें जिल्द चढ़ाने के अहसास से अनभिज्ञ रहना होगा ? जैसे डिजिटल कैमरा आया और तस्वीरों का चलन बन्ध हो गया , कहीं काग़ज़ की पुस्तकें भी थी तो नहीं जो जाएँगी ?
P S : यह मेरी अपनी एक सोच है ,जिससे अगर किसी को आपत्ति हो तो ख्श्मा प्रार्थी हूँ । मामूली ग़लतियों को कृपया अनदेखा करें ।और अपने विचारों से अवगत करवाइए .. निवेदिता
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