“हम हो न हो ये गुलशन रहेगा “।…..
पाठ ऐसा शिस्क्षकों ने पढ़ाया ही था
अंतिम लेख किसी मासूम ने लिखा था,
पांच साल का हुआ था न जाने को जी चाहता था
माँ ने भेजा था उसको ,कहाँ जी मानता था
फिर भी यहि सोचके दिल को तसल्ली दी थी
स्कूल को गया है नहीं जंग कहीं है लड़ने
वहीँ कहीं यही सोच लेके के नन्हा खुश हो रहा था ,
या फिर किसी बिल्डिंग का करूँगा नव निर्माण।
टीचर बनुगा ,पायलट बनूँगा या पिता की तरह जवान ,
सरहद पे लड़ मिटूंगा बनुगा पाकिस्तान की शान ,
था उन मासूमों का मुसल्लम ईमान।।
किसे मालूम वह शब्द आखिरी शब्द होंगे
जो बच गये वह ज़नाज़ों के मेलों में शामिल होंगे
दूध सरकार ने पिलाया उन सांपों को करने खुद का कल्याण
आज आस्तीन पे लौटें हैं वही बनके हैवान।।
उन मासूमों को कतल करने वालों क्या पाया है तुमने
हे खुदा के घर जाना ज़रा तो तहफीक करते।।
रूह कांपती है घिनौना मंज़र को देखके,
आंसू नहीं थमते रोये हम फफक फफक के,
उन माओं के उजड़े हुए घरोंदे देख के मन यूँ रो रहे ह
जिन्हे हो तुम दुश्मन समझते रोनें को तुम्हे वही कंधे दे रहे हैं
अब तो सम्भालो और जागो न वह तालिबानी
न कोई धर्म जानते हैं नहीं कोई इमांन न धर्म मानते हैं
जो कोई इंसान ऐसा हो तो उसे हम हैवान मानते हैं
जल्लाद मानते हैं , शैतान मानते हैं
उन्हें इंसान मानना ही गुनाह मानते हैं । …’निवेदिता’
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