कितना अच्छा होता , मैं भी कठोर होती
गर पूछते वो क्या हुआ चुप क्यों हो ?
कहती व्यस्त हूँ ,हाँ ठीक हूँ , क्यों ?
परवाह के जवाब में सवाल दाग पाती ….
ज़िंदगी से कुछ पल अपने लिए उधार लेती ,
गर पूछते क्या हुआ नाराज़ क्यों हो ?
मौन रहती कुछ न कहती और रूठ जाती ,
न मानती रूठती और रूठी ही रहती। ..
वे मनाते तो न मानने का ढोंग करती
फिर कुछ पलों में मान जाती
मुस्कुराती और उनकी बाँहों में कूद पड़ती। …
गर वो पूछते की क्या हुआ उदास क्यों हो ?
पर काश वो कभी समझते और रूठने पे कभी तो मनाते। …. निवेदिता
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